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मेरी पहचान है क्या मेरा पता दे मुझ को - अमीर क़ज़लबाश कविता - Darsaal

मेरी पहचान है क्या मेरा पता दे मुझ को

मेरी पहचान है क्या मेरा पता दे मुझ को

कोई आईना अगर है तो दिखा दे मुझ को

तुझ से मिलता हूँ तो अक्सर ये ख़याल आता है

इस बुलंदी से अगर कोई गिरा दे मुझ को

कब से पत्थर की चट्टानों में हूँ गुमनाम ओ असीर

देवताओं की तरह कोई जगा दे मुझ को

एक आईना सर-ए-राह लिए बैठा हूँ

जुर्म ऐसा है कि हर शख़्स सज़ा दे मुझ को

इन अंधेरों में अकेला ही जलूँगा कब तक

कोई शय तू भी तो ख़ुर्शीद-नुमा दे मुझ को

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