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हर रहगुज़र में काहकशाँ छोड़ जाऊँगा - अमीर क़ज़लबाश कविता - Darsaal

हर रहगुज़र में काहकशाँ छोड़ जाऊँगा

हर रहगुज़र में काहकशाँ छोड़ जाऊँगा

ज़िंदा हूँ ज़िंदगी के निशाँ छोड़ जाऊँगा

मैं भी तो आज़माऊँगा उस के ख़ुलूस को

उस के लबों पे अपनी फ़ुग़ाँ छोड़ जाऊँगा

मेरी तरह उसे भी कोई जुस्तुजू रहे

अज़-राह-ए-एहतियात गुमाँ छोड़ जाऊँगा

मेरा भी और कोई नहीं है तिरे सिवा

ऐ शाम-ए-ग़म तुझे मैं कहाँ छोड़ जाऊँगा

रौशन रहूँगा बन के मैं इक शोला-ए-नवा

सहरा के आस-पास अज़ाँ छोड़ जाऊँगा

फिर आ के बस गए हैं बराबर के घर में लोग

अब फिर 'अमीर' मैं ये मकाँ छोड़ जाऊँगा

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