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हाँ ये तौफ़ीक़ कभी मुझ को ख़ुदा देता था - अमीर क़ज़लबाश कविता - Darsaal

हाँ ये तौफ़ीक़ कभी मुझ को ख़ुदा देता था

हाँ ये तौफ़ीक़ कभी मुझ को ख़ुदा देता था

नेकियाँ कर के मैं दरिया में बहा देता था

था उसी भीड़ में वो मेरा शनासा था बहुत

जो मुझे मुझ से बिछड़ने की दुआ देता था

उस की नज़रों में था जलता हुआ मंज़र कैसा

ख़ुद जलाई हुई शम्ओं को बुझा देता था

आग में लिपटा हुआ हद्द-ए-नज़र तक साहिल

हौसला डूबने वालों का बढ़ा देता था

याद रहता था निगाहों को हर इक ख़्वाब मगर

ज़ेहन हर ख़्वाब की ताबीर भुला देता था

क्यूँ परिंदों ने दरख़्तों पे बसेरा न किया

कौन गुज़रे हुए मौसम का पता देता था

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