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चलो कि ख़ुद ही करें रू-नुमाइयाँ अपनी - अमीर क़ज़लबाश कविता - Darsaal

चलो कि ख़ुद ही करें रू-नुमाइयाँ अपनी

चलो कि ख़ुद ही करें रू-नुमाइयाँ अपनी

सरों पे ले के चलें कज-कुलाहियाँ अपनी

सभी को पार उतरने की जुस्तुजू लेकिन

न बादबाँ न समुंदर न कश्तियाँ अपनी

वो कह गया है कि इक दिन ज़रूर आऊँगा

ज़रा क़रीब से देखूँगा दूरियाँ अपनी

मिरे पड़ोस में ऐसे भी लोग बसते हैं

जो मुझ में ढूँड रहे हैं बुराइयाँ अपनी

मुझे ख़बर है वो मेरी तलाश में होगा

मैं छोड़ आया हूँ इक बात दरमियाँ अपनी

मैं बूँद बूँद की ख़ैरात कब तलक माँगूँ

समेट लाऊँ समुंदर से सीपियाँ अपनी

मिरे कहे हुए लफ़्ज़ों की क़द्र-ओ-क़ीमत थी

मैं अपने कान में कहने लगा अज़ाँ अपनी

करेगा सर वही इस दश्त-ए-बे-कराँ को 'अमीर'

जला के आए जो साहिल पे कश्तियाँ अपनी

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