तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ का क़िस्सा न पूछिए
महशर तलक कहूँ मैं अगर मुख़्तसर कहूँ
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वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं
पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
बाग़बाँ कलियाँ हों हल्के रंग की
आहों से सोज़-ए-इश्क़ मिटाया न जाएगा
पिला साक़िया अर्ग़वानी शराब
माँग लूँ तुझ से तुझी को कि सभी कुछ मिल जाए
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
जो चाहिए सो माँगिये अल्लाह से 'अमीर'
लाए कहाँ से उस रुख़-ए-रौशन की आब-ओ-ताब
उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
मिसी छूटी हुई सूखे हुए होंट