तरफ़-ए-काबा न जा हज के लिए नादाँ है
ग़ौर कर देख कि है ख़ाना-ए-दिल मस्कन-ए-दोस्त
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ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उन को ख़बर न हो
फूलों में अगर है बू तुम्हारी
तवक़्क़ो' है धोके में आ कर वह पढ़ लें
सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम 'अमीर'
तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
वादा-ए-वस्ल और वो कुछ बात है
ज़ाहिद उमीद-ए-रहमत-ए-हक़ और हज्व-ए-मय
मिरे बस में या तो या-रब वो सितम-शिआर होता
ये भी इक बात है अदावत की
गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला कर कहा
बरहमन दैर से काबे से फिर आए हाजी