सीधी निगाह में तिरी हैं तीर के ख़्वास
तिरछी ज़रा हुई तो हैं शमशीर के ख़्वास
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दिल जुदा माल जुदा जान जुदा लेते हैं
मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
लाए कहाँ से उस रुख़-ए-रौशन की आब-ओ-ताब
मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से
वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
बोसा लिया जो उस लब-ए-शीरीं का मर गए
शब-ए-विसाल बहुत कम है आसमाँ से कहो
अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
रास्ते और तवाज़ो' में है रब्त-ए-क़ल्बी
ज़ीस्त का ए'तिबार क्या है 'अमीर'
हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं