शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता
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मौक़ूफ़ जुर्म ही पे करम का ज़ुहूर था
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा
बाक़ी न दिल में कोई भी या रब हवस रहे
छेड़ देखो मिरी मय्यत पे जो आए तो कहा
अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
मिरे बस में या तो या-रब वो सितम-शिआर होता
आए बुत-ख़ाने से काबे को तो क्या भर पाया
अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ
वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
बाद मरने के भी छोड़ी न रिफ़ाक़त मेरी