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या-रब शब-ए-विसाल ये कैसा गजर बजा - अमीर मीनाई कविता - Darsaal

या-रब शब-ए-विसाल ये कैसा गजर बजा

या-रब शब-ए-विसाल ये कैसा गजर बजा

अगले पहर के साथ ही पिछ्ला पहर बजा

आवाज़-ए-सूर सुन के कहा दिल ने क़ब्र में

किस की बरात आई ये बाजा किधर बजा

कहते हैं आसमाँ जो तुम्हारे मकाँ को हम

कहता है आफ़्ताब दुरुस्त और क़मर बजा

जागो नहीं ये ख़्वाब का मौक़ा मुसाफ़िरो

नक़्क़ारा तक भी कोच का वक़्त-ए-सहर बजा

तामीर मक़बरे की है लाज़िम बजाए-क़स्र

ज़र-दारों से कहो कि करें सर्फ़-ए-ज़र बजा

हैं हम तो शादमाँ कि है ख़त में पयाम-ए-वस्ल

बग़लें ख़ुशी से तू भी तो ऐ नामा-बर बजा

तुझ को नहीं जो उन से मोहब्बत कहाँ मुझे

ताली न एक हाथ से ऐ बे-ख़बर बजा

नफ़रत है ये ख़ुशी से कि अश्क अपने गिर पड़े

हम-राह ताज़िया के भी बाजा अगर बजा

जा-ए-क़याम मंज़िल-ए-हस्ती न थी 'अमीर'

उतरे थे हम सिरा में कि कोस-ए-सफ़र बजा

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