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फूलों में अगर है बू तुम्हारी - अमीर मीनाई कविता - Darsaal

फूलों में अगर है बू तुम्हारी

फूलों में अगर है बू तुम्हारी

काँटों में भी होगी ख़ू तुम्हारी

उस दिल पे हज़ार जान सदक़े

जिस दिल में है आरज़ू तुम्हारी

दो दिन में गुलू बहार क्या की

रंगत वो रही न बू तुम्हारी

चटका जो चमन में ग़ुंचा-ए-गुल

बू दे गई गुफ़्तुगू तुम्हारी

मुश्ताक़ से दूर भागती है

इतनी है अजल में ख़ू तुम्हारी

गर्दिश से है महर-ओ-मह के साबित

उन को भी है जुस्तुजू तुम्हारी

आँखों से कहो कमी न करना

अश्कों से है आबरू तुम्हारी

लो सर्द हुआ मैं नीम-बिस्मिल

पूरी हुई आरज़ू तुम्हारी

सब कहते हैं जिस को लैलतुल-क़द्र

है काकुल-ए-मुश्क-बू तुम्हारी

तन्हा न फिरो 'अमीर' शब को

है घात में हर अदू तुम्हारी

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