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क्या रोके क़ज़ा के वार तावीज़ - अमीर मीनाई कविता - Darsaal

क्या रोके क़ज़ा के वार तावीज़

क्या रोके क़ज़ा के वार तावीज़

क़िल'अ है न कुछ हिसार तावीज़

चोटी में है मुश्क-बार तावीज़

या फ़ित्ना-ए-रोज़गार तावीज़

दोनों ने न दर्द-ए-दिल मिटाया

गंडे का है रिश्ता-दार तावीज़

क्या नाद-ए-अली में भी असर है

चारों टुकड़े हैं चार तावीज़

डरता हूँ न सुब्ह हो शब-ए-वस्ल

है महर वो ज़र-निगार तावीज़

हम को भी हो कुछ उमीद-ए-तस्कीं

खोए जो तप-ए-ख़यार तावीज़

पत्तां को जड़ हमारी पहुँची

गाड़ा तह-ए-पा-ए-यार तावीज़

हाजत नहीं उन को नौ-रतन की

बाज़ू पे हैं पाँच चार तावीज़

खटके वो न आए फ़ातिहे को

देखा जो सर-ए-मज़ार तावीज़

पी जाएँगे घोल कर किसे आप

है नक़्श न ख़ाकसार तावीज़

ऐ तुर्क टलें बलाएँ सर से

इक तेग़ का ख़त-ए-हज़ार तावीज़

डर है तुम्हें कंकनों से लाज़िम

लाया तो है सादा-कार तावीज़

इक्सीर का नुस्ख़ा इस को समझूँ

खोए जो तिरा ग़ुबार तावीज़

मजमा है 'अमीर' की लहद पर

मेले का है इश्तिहार तावीज़

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