हुआ जो पैवंद मैं ज़मीं का तो दिल हुआ शाद मुझ हज़ीं का
हुआ जो पैवंद मैं ज़मीं का तो दिल हुआ शाद मुझ हज़ीं का
बस अब इरादा नहीं कहीं का कि रहने वाला हूँ मैं यहीं का
क़रीब है यारो रोज़-ए-महशर छुपेगा कुश्तों का ख़ून क्यूँकर
जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर लहू पुकारेगा आस्तीं का
अजब मुरक़्क़ा' है बाग़-ए-दुनिया कि जिस का साने' नहीं हुवैदा
हज़ार-हा सूरतें हैं पैदा पता नहीं सूरत-आफ़रीं का
हवा-ए-मय में हूँ महव ऐसा चमन में घिर कर जो अब्र आया
सियाह-मस्ती में मैं ये समझा जहाज़ है आब-ए-आतशीं का
'अमीर' देखा जो उस का नक़्श तो नक़्श यूसुफ़ का दिल से उतरा
कि नक़्श-ए-सानी के आगे होता फ़रोग़ क्या नक़्श-ए-अव्वलीं का
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