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गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी - अमीर मीनाई कविता - Darsaal

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी

कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी

जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले

बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी

कहाँ ग़ुंचा कहाँ उस का दहन तंग

बढ़ाई शायरों ने बात थोड़ी

उठे क्या ज़ानू-ए-ग़म से सर अपना

बहुत गुज़री रही हैहात थोड़ी

ख़याल-ए-ज़ब्त-ए-गिर्या है जो हम को

बहुत इमसाल है बरसात थोड़ी

पिलाए ले के नक़द-ए-होश साक़ी

तही-दस्तों की है औक़ात थोड़ी

वही है आसमाँ पर गंज-ए-अंजुम

मिली थी जो तिरी ख़ैरात थोड़ी

तिरा ऐ दुख़्त-ए-रज़ वासिफ़ है वाइज़

पए-हुर्मत है इतनी बात थोड़ी

चलो मंज़िल 'अमीर' आँखें तो खोलो

निहायत रह गई है रात थोड़ी

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