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दिल जो सीने में ज़ार सा है कुछ - अमीर मीनाई कविता - Darsaal

दिल जो सीने में ज़ार सा है कुछ

दिल जो सीने में ज़ार सा है कुछ

ग़म से बे-इख़्तियार सा है कुछ

रख़्त-ए-हस्ती बदन पे ठीक नहीं

जामा-ए-मुस्तआर सा है कुछ

चश्म-ए-नर्गिस कहाँ वो चश्म कहाँ

नश्शा कैसा ख़ुमार सा है कुछ

नख़्ल-ए-उम्मीद में न फूल न फल

शजर-ए-बे-बहार सा है कुछ

साक़िया हिज्र में ये अब्र नहीं

आसमाँ पर ग़ुबार सा है कुछ

कल तो आफ़त थी दिल की बेताबी

आज भी बे-क़रार सा है कुछ

मुर्दा है दिल तो गोर है सीना

दाग़ शम-ए-मज़ार सा है कुछ

इस को दुनिया की उस को ख़ुल्द की हिर्स

रिंद है कुछ न पारसा है कुछ

पहले इस से था होशियार 'अमीर'

अब तो बे-इख़्तियार सा है कुछ

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