तिरा ख़याल था लफ़्ज़ों में ढल गया कैसे
तिरा ख़याल था लफ़्ज़ों में ढल गया कैसे
दिलों में शम-ए-ग़ज़ल बन के जल गया कैसे
वो आदमी जो मिरा दोस्त था ज़माने तक
पता नहीं कि यकायक बदल गया कैसे
बहुत ही तेज़ हवा शेर-ए-हादसात की थी
मैं गिरते गिरते न जाने सँभल गया कैसे
कहीं भी आग लगाने का वाक़िआ' न हुआ
तो फिर हुज़ूर मकाँ मेरा जल गया कैसे
ख़लिश से जिस की थी वाबस्ता याद मंज़िल की
वो ख़ार पाँव से 'ख़ुसरव' निकल गया कैसे
(720) Peoples Rate This