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तुम और हम - अमीक़ हनफ़ी कविता - Darsaal

तुम और हम

तुम बदन की सतह के तैराक बनना चाहते थे

तुम थे नज़्ज़ारों के साहिल पर तमाशा-बीन और शौक़ीन

तुम पहुँचना चाहते थे पैरहन के पार

जिल्द तक महदूद था ज़ौक़-ए-जमाल

गोश्त था मक़्सूद-ए-परवाज़-ए-ख़याल

इंकिशाफ़-ए-जिस्म था अफ़्कार-ए-आली का कमाल

दामन ओ बंद-ए-क़बा अंगिया दुपट्टे पाइनचे

थे तुम्हारी शायरी के मश्ग़ले

और तुम्हारे मसअले और मरहले

और हम हैं रूह की एहसास की गहराइयों के ग़ोता-ख़ोर

ज़िंदगी में और हम में राज़ अब उतने नहीं

ज़िंदगी क्या और दुनिया क्या हमारे सामने हैं बे-हिजाब

जिल्द क्या और गोश्त क्या और जिस्म क्या

एक्स-रे स्क्रीन पर हैं हड्डियाँ तक बे-लिबास

बार-हा देखी हुई चीज़ों को फिर से देखना

बार-हा भोगी हुई चीज़ों को फिर से भोगना

भोग कर ख़ुश होना कुढ़ना, तिलमिलाना सोचना

सोचना और सोच के कारन को पीछे छोड़ कर

नापते फिरना अज़ल से ता-अबद

सोच का सहरा-ए-ना-पैदा-कनार

आरज़ू-ए-दीद के शालों में तुम चलते रहे

दीद के शोलों में हम लिपटे हुए हैं

तुम पराई आग में जलते रहे

और हम जलते हैं अपनी आग में

और अब अपने पराए में कहाँ है कोई भेद

एक ही आकाश अपने बाज़ुओं में भेंचता है

एक तख़्त-अल-अर्ज़ चश्मा सब जड़ों को सींचता है

एक ही शोला नसों को खींचता है

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