तअल्लुक़ तोड़ने वाले
बरस भर की ख़ुशी के हम ने कुछ नक़्शे बनाए थे
भरे थे उन में कैसे कैसे दिल-कश रंग
अभी वो रंग सूखे भी न थे बारिश ने आ घेरा
वो नक़्शे हो गए बद-रंग
कहाँ से यक-ब-यक बरसे ये पत्थर
कि ख़्वाबों की हर इक खिड़की के शीशे चूर कर डाले
कहाँ से तेज़ी-ओ-तुंदी भरी ये शोलगी आई
कि जिस ने आरज़ू ओ शौक़ की ज़ंजीर पिघलाई
अभी तो आरज़ू-ए-वस्ल ने दोनों दिलों में घर बसाया था
अभी इस हिज्र के डर ने उसे बे-दख़्ल कर डाला
अभी आज़ादी-ए-जिस्म-ओ-दिल-ओ-जाँ का तराना हम ने छेड़ा था
अभी कस ने तुम्हारे दिल पे फिर फूँका वही मंतर
कि तुम इंसाँ नहीं हो इक समाजी जानवर हो तुम
तुम्हें रस्मों का क़ानूनों का भारी बोझ ढोना है
नुमाइश के कसी रिश्ते की ख़ातिर हँसना रोना है
न इंसाँ हो न हैवाँ हो समाजी जानवर हो तुम
समाजी जानवर हो तुम
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