तज्दीद
सुन रही हो ईंट पत्थर के सरकने की सदा
टूटी छत पर बैठ कर आकाश को तकती हो क्या
इस खंडर को छोड़ कर आओ चलें मैदान में
उस तरफ़ वो झाड़ियों का झुण्ड है हजला-नुमा
आओ उस में चल के हम इक दूसरे को देख लें
और देखें पत्थरों के युग में कैसा प्यार था
घर बने बिगड़े, बसे उजड़े नगर हर दौर में
एक ये जंगल ही ऐसा है कि जियूँ-का-त्यूँ रहा
आओ चल कर झाड़ियों के झुण्ड में सो जाएँ हम
फिर से पाने के लिए इक दूजे में खो जाएँ हम
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