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तज्दीद - अमीक़ हनफ़ी कविता - Darsaal

तज्दीद

सुन रही हो ईंट पत्थर के सरकने की सदा

टूटी छत पर बैठ कर आकाश को तकती हो क्या

इस खंडर को छोड़ कर आओ चलें मैदान में

उस तरफ़ वो झाड़ियों का झुण्ड है हजला-नुमा

आओ उस में चल के हम इक दूसरे को देख लें

और देखें पत्थरों के युग में कैसा प्यार था

घर बने बिगड़े, बसे उजड़े नगर हर दौर में

एक ये जंगल ही ऐसा है कि जियूँ-का-त्यूँ रहा

आओ चल कर झाड़ियों के झुण्ड में सो जाएँ हम

फिर से पाने के लिए इक दूजे में खो जाएँ हम

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