मामूल
शाम छत से घर में उतरी
रात बन कर एक इक कमरे में फैली
वक़्त को अपनी कलाई से उतारा
और टेबल पर सजा कर
मैं ने आज़ादी का लम्बा साँस खींचा
याद और ख़्वाबों की पतवारें संभालीं
कशती-ए-एहसास को बारीक और बद-रंग लहरों में उतारा
सुब्ह तक इस कशती-ए-एहसास पर
कर के ले आऊँगा सूरज को सवार
और फिर मेरी कलाई
वक़्त की पाबंद हो कर
शाम तक अंजाम देगी
कार-हा-ए-नागवार
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