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दुआ - अमीक़ हनफ़ी कविता - Darsaal

दुआ

अन-गिनत शम्सी-निज़ामों के बखेड़ों से अगर

इक ज़रा फ़ुर्सत मिले तो

मेरी आँखों की नमीदा कोर पर अश्क-ए-नदामत की तरफ़ भी देख लेना

झिलमिलाता इक सितारा जैसे इस्तिग़फ़ार का कोई वज़ीफ़ा

ये ज़मीं

तेरी मख़्लूक़ात का अदना सा ज़र्रा

और इस ज़र्रे का मैं जुज़्व-ए-हक़ीर

मेरा हिस्सा नब्ज़-ए-मआनी की ख़ुश-आहंगी में लफ़्ज़ों को नचाना

अपने ही हम-शक्ल जर्सूमों की फैलाई हुई बीमारियों के

एक्स-रे फोटो मिरे अल्फ़ाज़

ग़ैर दुनिया ग़ैर इस का तजरबा

लफ़्ज़ ग़ैर आहंग ग़ैर

फिर भी मेरे कान में फूँका किसी ने

जो भी कुछ मैं कर रहा हूँ

जो भी कुछ मैं लिख रहा हूँ

वो मेरी तख़्लीक़ है

मैं भी अपने आप में तख़्लीक़-कार

और ये शैतान फूँक

मेरे सर में चढ़ गई

मैं ने अपनी रूह को

पानियों पर छे दिनों तक बे-तकाँ जुम्बिश में पाया

लफ़्ज़-ए-कुन का विर्द कर के आँख जब खोली तो देखा

ये ज़मीं ये आसमाँ

रौशनी पानी फ़ज़ा ख़ुश्की दरख़्त

चाँद सूरज कहकशाँ हैवान जिन इंसाँ मलक

एक कोरस बन गए हैं

और मुझ पर हँस रहे हैं

मेरे आगे पीछे शर्र-ए-मा-ख़लक़ है

ऐ तुलू-ए-सुब्ह के रब

इक ज़रा फ़ुर्सत मिले तो

मेरी इस गुम-सुम अना को

अपने सूरज की ज़रा सी रौशनी और आँच दे देना

और कह देना मिरी मख़्लूक़ जा मेरी निशानी बन

मुझ से अपनी रूह के

या रूह से मेरे गुज़रने की कहानी बन

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