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आईना-ख़ाने के क़ैदी से - अमीक़ हनफ़ी कविता - Darsaal

आईना-ख़ाने के क़ैदी से

ज़ात का आईना-ख़ाना

जिस में रौशन इक चराग़-ए-आरज़ू

चार-सू

ज़ाफ़रानी रौशनी के दाएरे

मुख़्तलिफ़ हैं आईनों के ज़ाविए

एक लेकिन अक्स-ए-ज़ात;

इक इकाई पर उसी की ज़र्ब से

कसरत-ए-वहदत का पैदा है तिलिस्म

ख़ल्वत-ए-आईना-ख़ाना में कहीं कोई नहीं

सिर्फ़ मैं!

मैं ही बुत

और मैं ही बुत-परस्त!

मैं ही बज़्म-ए-ज़ात में रौनक़-अफ़रोज़

जल्वा-हा-ए-ज़ात को देता हूँ दाद!

जब हवा-ए-शोख़ की मौज-ए-शरीर

तोड़ जाती है किसी खिड़की के पर्दे का जुमूद

तो बिगड़ जाता है खेल

देव-क़ामत अक्स को बौना बना देती है बाहर की किरन

ऐ मिरी ना-मुस्तइद मजहूल ज़ात

ऐ कि तू अज़-ख़ुद नज़र-बंद आईना-ख़ाने में है

सोचती है तू कहेगी अन-कहा

और कुछ कहती नहीं!

सोचती है तू लिखेगी शाहकार

और कुछ लिखती नहीं!

सोचती है तू जहाँ-दारी की बात

और कुछ करती नहीं!

सोचने ही सोचने में साअत-ए-तख़्लीक़ जब

तेरे शल हाथों से जाती है फिसल

तो बिलक पड़ती है तू

ऐ मिरी ना-मुस्तइद मजहूल ज़ात

ख़ल्वत-ए-आईना-ख़ाने से निकल

ऐ चराग़-ए-आरज़ू

जिस तरफ़ ज़ौ-पाश हो

जिस तरफ़ से शाह-राह-ए-जुस्तुजू

ताश और शतरंज के शाहों से बरतर है कहीं

वो पियादा जो चले

वो पियादा जो चले ख़ुद अपनी चाल

ऐ मिरी ना-मुस्तइद मजहूल ज़ात

कोई फ़िक्र!

कोई काम!

कोई बात!

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