कौन है ये मतला-ए-तख़ईल पर महताब सा
कौन है ये मतला-ए-तख़ईल पर महताब सा
मेरी रग रग में बपा होने लगा सैलाब सा
आग की लपटों में है लिपटा हुआ सारा बदन
हड्डियों की नलकियों में भर गया तेज़ाब सा
ख़्वाहिशों की बिजलियों की जलती बुझती रौशनी
खींचती है मंज़रों में नक़्शा-ए-आसाब सा
किस बुलंदी पर उड़ा जाता हूँ बर-दोश-ए-हवा
आसमाँ भी अब नज़र आने लगा पायाब सा
तैरता है ज़ेहन यूँ जैसे फ़ज़ा में कुछ नहीं
और दिल सीने में है इक माहि-ए-बे-आब सा
(715) Peoples Rate This