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है नूर-ए-ख़ुदा भी यहाँ इरफ़ान-ए-ख़ुदा भी - अमीक़ हनफ़ी कविता - Darsaal

है नूर-ए-ख़ुदा भी यहाँ इरफ़ान-ए-ख़ुदा भी

है नूर-ए-ख़ुदा भी यहाँ इरफ़ान-ए-ख़ुदा भी

ये ज़ात कि है वादी-ए-सीना भी हिरा भी

उस बन में किया करती है तप मेरी अना भी

इस शहर में है कार-गह-ए-अर्ज़-ओ-समा भी

करता हूँ तवाफ़ अपना तो मिलती है नई राह

क़िबला भी है ये ज़ात मिरा क़िबला-नुमा भी

ख़ुद-आगही ओ ख़ुद-निगही का है ये इनआ'म

और जुर्म-ए-शनासाई-ए-आलम की सज़ा भी

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा सर-ए-एहसास

जो देखती रहती है मिरी आँख दिखा भी

करती है कमर-बस्ता सफ़र पर भी यही ज़ात

जब दूर निकल जाता हूँ देती है सदा भी

ज़र्रे में है कौनैन तो कौनैन में ज़र्रा

कुछ है तुझे आवारा-ए-अफ़्लाक पता भी

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