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मंज़िल-ए-शम्स-ओ-क़मर से गुज़रे - अमीन राहत चुग़ताई कविता - Darsaal

मंज़िल-ए-शम्स-ओ-क़मर से गुज़रे

मंज़िल-ए-शम्स-ओ-क़मर से गुज़रे

जब तिरी राहगुज़र से गुज़रे

शब की गाती हुई तन्हाई में

कितने तूफ़ाँ थे जो सर से गुज़रे

वहीं पतझड़ ने पड़ाव डाला

क़ाफ़िले गुल के जिधर से गुज़रे

हर तरफ़ सब्त हैं क़दमों के निशाँ

कोई किस राहगुज़र से गुज़रे

किस क़दर ख़ुद पे हमें प्यार आया

आज जब अपनी नज़र से गुज़रे

सुर्ख़ी-ए-गुल से भी चौंके गुल-रुख़

वो ज़माने भी नज़र से गुज़रे

दश्त-ओ-सहरा का भी दामन सिमटा

तेरे दीवाने जिधर से गुज़रे

ख़ुद-निगर हो गए 'राहत' हम भी

आज वो काश इधर से गुज़रे

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