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किसी मकाँ के दरीचे को वा तो होना था - अमीन राहत चुग़ताई कविता - Darsaal

किसी मकाँ के दरीचे को वा तो होना था

किसी मकाँ के दरीचे को वा तो होना था

मुझे किसी न किसी दिन सदा तो होना था

जिसे ख़मीदा सरों से मिले क़द-ओ-क़ामत

उसे किसी न किसी दिन ख़ुदा तो होना था

मैं जानता था जबीनों पे बल पड़ेंगे मगर

क़लम का क़र्ज़ था आख़िर अदा तो होना था

ये क्या ज़रूर पता पूछते फिरें उस का

मिला ही यूँ था वो जैसे जुदा तो होना था

वो पिछली रात की ख़ुशबू रची रची सी फ़ज़ा

सहर क़रीब थी वक़्फ़-ए-दुआ तो होना था

हम एक जाँ ही सही दिल तो अपने अपने थे

कहीं कहीं से फ़साना जुदा तो होना था

मैं आइना था छुपाता किसी को क्या राहत

वो देखता मुझे जब भी ख़फ़ा तो होना था

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