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जरस-ए-मय ने पुकारा है उठो और सुनो - अमीन राहत चुग़ताई कविता - Darsaal

जरस-ए-मय ने पुकारा है उठो और सुनो

जरस-ए-मय ने पुकारा है उठो और सुनो

शैख़ आए हैं सू-ए-मय-कदा लो और सुनो

किस तरह उजड़े सुलगती हुई यादों के दिए

हमदमो दिल के क़रीब आओ रुको और सुनो

ज़ख़्म-ए-हस्ती है कोई ज़ख़्म-ए-मोहब्बत तो नहीं

टीस उठ्ठे भी तो फ़रियाद न हो और सुनो

ख़ुद ही हर घाव पे कहते हो ज़बाँ गंग रहे

ख़ुद ही फिर पुर्सिश-ए-अहवाल करो और सुनो

दास्ताँ कहते हैं जलते हुए फूलों के चराग़

अभी कुछ और सुनो दीदा-वरो और सुनो

शहरयारों के हैं हर गाम पे चर्चे 'राहत'

ये वो बस्ती है कि बस कुछ न कहो और सुनो

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