जरस-ए-मय ने पुकारा है उठो और सुनो
जरस-ए-मय ने पुकारा है उठो और सुनो
शैख़ आए हैं सू-ए-मय-कदा लो और सुनो
किस तरह उजड़े सुलगती हुई यादों के दिए
हमदमो दिल के क़रीब आओ रुको और सुनो
ज़ख़्म-ए-हस्ती है कोई ज़ख़्म-ए-मोहब्बत तो नहीं
टीस उठ्ठे भी तो फ़रियाद न हो और सुनो
ख़ुद ही हर घाव पे कहते हो ज़बाँ गंग रहे
ख़ुद ही फिर पुर्सिश-ए-अहवाल करो और सुनो
दास्ताँ कहते हैं जलते हुए फूलों के चराग़
अभी कुछ और सुनो दीदा-वरो और सुनो
शहरयारों के हैं हर गाम पे चर्चे 'राहत'
ये वो बस्ती है कि बस कुछ न कहो और सुनो
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