हमीं थे जान-ए-बहाराँ हमीं थे रंग-ए-तरब
हमीं थे जान-ए-बहाराँ हमीं थे रंग-ए-तरब
हमीं हैं बज़्म-ए-मय-ओ-गुल में आज मोहर-ब-लब
वही तुझे भी नज़र आए बे-अदब जो लोग
फ़क़ीह-ए-शहर से उलझे तिरी गली के सबब
ख़याल-ओ-फ़िक्र के फिर सिलसिले सुलग न उठें
कि चुभ रही है दिलों में हवा-ए-गेसू-ए-शब
बस एक जाम ने रिंदों की आबरू रख ली
वगर्ना कम न था वाइ'ज़ का शोर-ए-ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब
चलो कली के तबस्सुम का राज़ पूछ आएँ
गुलों के क़ाफ़िले चल दें चमन से जाने कब
अभी से धड़कनें ख़ामोश होती जाती हैं
अजीब होगा समाँ वो भी तुम न आओगे जब
हमें ही ताब-ए-समाअ'त न हो सकी 'राहत'
फ़साना-ख़्वाँ ने तो छेड़ा था ज़िक्र-ए-अहद-ए-तरब
(780) Peoples Rate This