देख कोह-ए-ना-रसा बन कर भरम रक्खा तिरा
देख कोह-ए-ना-रसा बन कर भरम रक्खा तिरा
मैं कि था इक ज़र्रा-ए-बे-ताब ऐ सहरा तिरा
कौन साक़ी कैसा पैमाना कहाँ सहबा-ए-तेज़
आबरू यूँ रह गई है सर में था सौदा तिरा
सब गिरेबाँ सी रहे हैं सेहन-ए-गुल में बैठ कर
कौन अब सहरा को जाए, है कहाँ चर्चा तिरा
अब अनासिर में तवाज़ुन ढूँडने जाएँ कहाँ
हम जिसे हमराज़ समझे पासबाँ निकला तिरा
बंद दरवाज़े किए बैठे हैं अब अहल-ए-जुनूँ
तख़्तियाँ नामों की पढ़ कर क्या करे रुस्वा तिरा
दाद तो अहल-ए-मुरव्वत दे गए राहत तुझे
शेर भी उन को नज़र आया कोई अच्छा तिरा
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