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रख दिया मैं ने दर-ए-हुस्न पे हारा हुआ इश्क़ - अमीन अडीराई कविता - Darsaal

रख दिया मैं ने दर-ए-हुस्न पे हारा हुआ इश्क़

रख दिया मैं ने दर-ए-हुस्न पे हारा हुआ इश्क़

आज के बा'द मिरी जान तुम्हारा हुआ इश्क़

चोट गहरी थी मगर पाँव नहीं रुक पाए

हम पलट आए वहीं हम को दोबारा हुआ इश्क़

झिलमिलाता है मिरी आँख में आँसू बन कर

आ गया रास मुझे दिल में उतारा हुआ इश्क़

सिक्का-ए-वक़्त बदलते ही सभी छोड़ गए

ज़ात के शहर में इक उम्र सहारा हुआ इश्क़

जब भी होती है दर-ए-ख़्वाब पे दस्तक कोई

जाग जाता है तिरे हिज्र का मारा हुआ इश्क़

मेरी पलकों से टपकता है लहू बन के 'अमीन'

तेरी गलियों में शब-ओ-रोज़ गुज़ारा हुआ इश्क़

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