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ग़म-ए-उल्फ़त में डूबे थे उभरना भी ज़रूरी था - अम्बर जोशी कविता - Darsaal

ग़म-ए-उल्फ़त में डूबे थे उभरना भी ज़रूरी था

ग़म-ए-उल्फ़त में डूबे थे उभरना भी ज़रूरी था

हमें राह-ए-मोहब्बत से गुज़रना भी ज़रूरी था

हक़ीक़त सामने आई बहुत हैरत हुई मुझ को

तिरे चेहरे से पर्दे का उतरना भी ज़रूरी था

हमें मंज़िल को पाना था तभी तो राह-ए-हस्ती में

हमें पथरीले रस्तों से गुज़रना भी ज़रूरी था

लुटाते ही रहे जो कुछ भी अपने पास था यारो

कि ख़ुशबू की तरह अपना बिखरना भी ज़रूरी था

हमें वो भूल बैठे हैं उन्हें फिर याद क्या करना

उन्हें राह-ए-मोहब्बत में बिसरना भी ज़रूरी था

हमारी ज़िंदगी में हादसे होते रहे 'अंबर'

उन्हें सहते हुए अपना निखरना भी ज़रूरी था

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