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असीर-ए-ख़्वाब नई जुस्तुजू के दर खोलें - अम्बरीन सलाहुद्दीन कविता - Darsaal

असीर-ए-ख़्वाब नई जुस्तुजू के दर खोलें

असीर-ए-ख़्वाब नई जुस्तुजू के दर खोलें

हवा पे हाथ रखें और अपने पर खोलें

समेटे अपने सराबों में बारिशों का जमाल

कहाँ का क़स्द है ये राज़ ख़ुश-नज़र खोलें

उसे भुलाने की फिर से करें नई साज़िश

चलो कि आज कोई नामा-ए-दीगर खोलें

उलझती जाती हैं गिर्हें अधूरे लफ़्ज़ों की

हम अपनी बातों के सारे अगर मगर खोलें

जो ख़्वाब देखना ताबीर खोजना हो कभी

तो पहले रात के लिपटे हुए भँवर खोलें

इक ईंट सामने दीवार से निकालें अब

चलो कि फिर से नया कोई दर्द-ए-सर खोलें

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