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सितारा-बार बन जाए नज़र ऐसा नहीं होता - अंबरीन हसीब अंबर कविता - Darsaal

सितारा-बार बन जाए नज़र ऐसा नहीं होता

सितारा-बार बन जाए नज़र ऐसा नहीं होता

हर इक उम्मीद बर आए मगर ऐसा नहीं होता

मोहब्बत और क़ुर्बानी में ही ता'मीर मुज़्मर है

दर-ओ-दीवार से बन जाए घर ऐसा नहीं होता

सभी के हाथ में मिस्ल-ए-सिफ़ाल-ए-नम नहीं रहना

जो मिल जाए वही हो कूज़ा-गर ऐसा नहीं होता

कहा जलता हुआ घर देख कर अहल-ए-तमाशा ने

धुआँ ऐसे नहीं उठता शरर ऐसा नहीं होता

किसी की मेहरबाँ दस्तक ने ज़िंदा कर दिया मुझ को

मैं पत्थर हो गई होती अगर ऐसा नहीं होता

किसी जज़्बे की शिद्दत मुनहसिर तकमील पर भी थी

न पाया हो तो खोने का भी डर ऐसा नहीं होता

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