शब थी बे-ख़्वाब इक आरज़ू देर तक
शब थी बे-ख़्वाब इक आरज़ू देर तक
शहर-ए-दिल में फिरी कू-ब-कू देर तक
चाँदनी से तसव्वुर का दर वा हुआ
तुम से होती रही गुफ़्तुगू देर तक
जाग उट्ठे थे क़ुर्बत के मौसम तमाम
फिर सजी महफ़िल-ए-रंग-ओ-बू देर तक
दफ़अ'तन उठ गई हैं निगाहें मिरी
आज बैठे रहो रू-ब-रू देर तक
तुम ने किस कैफ़ियत में मुख़ातब किया
कैफ़ देता रहा लफ़्ज़-ए-'तू' देर तक
दिल के सादा उफ़ुक़ पर तुम्ही से रहे
रंग-ए-क़ौस-ए-क़ुज़ह चार-सू देर तक
रत-जगे में रहा ख़्वाब का वो समाँ
कैफ़ियत थी वही हू-ब-हू देर तक
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