इक गली से ख़ुश्बू की रस्म-ओ-राह काफ़ी है
इक गली से ख़ुश्बू की रस्म-ओ-राह काफ़ी है
लाख जब्र मौसम हो ये पनाह काफ़ी है
निय्यत-ए-ज़ुलेख़ा की खोज में रहे दुनिया
अपनी बे-गुनाही को दिल गवाह काफ़ी है
उम्र-भर के सज्दों से मिल नहीं सकी जन्नत
ख़ुल्द से निकलने को इक गुनाह काफ़ी है
आसमाँ पे जा बैठे ये ख़बर नहीं तुम को
अर्श के हिलाने को एक गुनाह काफ़ी है
पैरवी से मुमकिन है कब रसाई मंज़िल तक
नक़्श-ए-पा मिटाने को गर्द-ए-राह काफ़ी है
चार दिन की हस्ती में हँस के जी लिए 'अम्बर'
बे-नशात दुनिया से ये निबाह काफ़ी है
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