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वो लम्हा मुझ को शश्दर कर गया था - अम्बर बहराईची कविता - Darsaal

वो लम्हा मुझ को शश्दर कर गया था

वो लम्हा मुझ को शश्दर कर गया था

मिरे अंदर भी लावा भर गया था

है दोनों सम्त वीरानी का आलम

इसी रस्ते से वो लश्कर गया था

गुज़ारी थी भँवर में उस ने लेकिन

वो माँझी साहिलों से डर गया था

क़लंदर मुतमइन था झोंपड़े में

अबस उस के लिए महज़र गया था

न जाने कैसी आहट थी फ़ज़ा में

वो दिन ढलते ही अपने घर गया था

अभी तक बाम-ओ-दर हैं फूल जैसे

मिरे घर भी वो खुश-मंज़र गया था

सितारे बा-अदब ठहरे हुए थे

ख़ला में एक ख़ुश-पैकर गया था

इधर आँखों में मेरी धूल ठहरी

उधर शबनम से मंज़र भर गया था

मगर तिश्ना-लबी ठहरी मुक़द्दर

नदी के पास भी 'अम्बर' गया था

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