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मिरे चेहरे पे जो आँसू गिरा था - अम्बर बहराईची कविता - Darsaal

मिरे चेहरे पे जो आँसू गिरा था

मिरे चेहरे पे जो आँसू गिरा था

न जाने कितने शोलों में जला था

हमारे कान बहरे हो गए थे

उधर वो दास्ताँ-गो हँस रहा था

अँधेरी रात सन्नाटे का आलम

नदी के पार इक लपका जगा था

बहुत आज़ार थे रस्ते में लेकिन

लहू में फूल-मौसम हँस रहा था

हवा-ए-गर्म यूँ दिल में चली थी

मिरी आँखों में सावन बस गया था

अँधेरे दश्त से निकले कि देखा

सवा नेज़े पे सूरज आ चुका था

लबों पे थी मिरे सुब्ह-ए-तबस्सुम

मिरे बातिन में कोई रो रहा था

बहुत दिन ब'अद खुल कर मिल रहे थे

मिरे बच्चों को जाने क्या हुआ था

बहुत मुश्ताक़ था शहर-ए-ख़मोशाँ

कि बस्ती में फ़क़त 'अम्बर' बचा था

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