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क्यूँ न हों शाद कि हम राहगुज़र में हैं अभी - अम्बर बहराईची कविता - Darsaal

क्यूँ न हों शाद कि हम राहगुज़र में हैं अभी

क्यूँ न हों शाद कि हम राहगुज़र में हैं अभी

दश्त-ए-बे-सब्ज़ में और धूप नगर में हैं अभी

सुर्ख़ आज़र ही मिरे ज़ख़्मों पे न हो यूँ मसरूर

कई शहपर मिरे टूटे हुए पर में हैं अभी

इन धुँदलकों की हर इक चाल तो शातिर है मगर

नुक़रई नक़्श मिरे दस्त-ए-हुनर में हैं अभी

उम्र भर मैं तो रहा ख़ाना-बदोशी में इधर

कुछ कबूतर मिरे अस्लाफ़ के घर में हैं अभी

एक मुद्दत से कोई सब्ज़ न उभरा इस में

घोंसले चील के बे-बर्ग शजर में हैं अभी

शहर की धूल फ़ज़ाएँ ही मुक़द्दर में रहीं

आम के बोर मगर मेरी नज़र में हैं अभी

राख के ढेर पे मातम न करो देखो भी

कई शोले किसी बे-जान शरर में हैं अभी

एक साहिर कभी गुज़रा था इधर से 'अम्बर'

जा-ए-हैरत कि सभी उस के असर में हैं अभी

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