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जगमगाती रौशनी के पार क्या था देखते - अम्बर बहराईची कविता - Darsaal

जगमगाती रौशनी के पार क्या था देखते

जगमगाती रौशनी के पार क्या था देखते

धूल का तूफ़ाँ अंधेरे बो रहा था देखते

सब्ज़ टहनी पर मगन थी फ़ाख़्ता गाती हुई

एक शकरा पास ही बैठा हुआ था देखते

हम अंधेरे टापुओं में ज़िंदगी करते रहे

चाँदनी के देस में क्या हो रहा था देखते

जान देने का हुनर हर शख़्स को आता नहीं

सोहनी के हाथ में कच्चा घड़ा था देखते

ज़ेहन में बस्ती रही हर बार जूही की कली

बैर के जंगल से हम को क्या मिला था देखते

आम के पेड़ों के सारे फल सुनहरे हो गए

इस बरस भी रास्ता क्यूँ रो रहा था देखते

उस के होंटों के तबस्सुम पे थे सब चौंके हुए

उस की आँखों का समुंदर क्या हुआ था देखते

रात उजले पैरहन वाले थे ख़्वाबों में मगन

दूधिया पूनम को किस ने डस लिया था देखते

बीच में धुँदले मनाज़िर थे अगरचे सफ़-ब-सफ़

फिर भी 'अम्बर' हाशिया तो हँस रहा था देखते

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