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हर तरफ़ उस के सुनहरे लफ़्ज़ हैं फैले हुए - अम्बर बहराईची कविता - Darsaal

हर तरफ़ उस के सुनहरे लफ़्ज़ हैं फैले हुए

हर तरफ़ उस के सुनहरे लफ़्ज़ हैं फैले हुए

और हम काजल की इक तहरीर में डूबे हुए

चाँदनी के शहर में हमराह था वो भी मगर

दूर तक ख़ामोशियों के साज़ थे बजते हुए

हँस रहा था वो हरी रुत की सुहानी छाँव में

दफ़अतन हर इक शजर के पैरहन मैले हुए

आज इक मासूम बच्ची की ज़बाँ खींची गई

मेरी बस्ती में अंधेरे और भी गहरे हुए

हर गली में थीं सियह परछाइयों की यूरिशें

शब कई गूँगे मलक हर छत पे थे बैठे हुए

सब अदाएँ वक़्त की वो जानता है इस लिए

टाट के नीचे सुनहरा ताज है रक्खे हुए

सूप के दाने कबूतर चुग रहा था और वो

सेहन को महका रही थी सुन्नतें पढ़ते हुए

रात 'अम्बर' कहकशाँ से दूब ये कहने लगी

छाँव में मेरी हज़ारों चाँद हैं सोए हुए

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