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दरवाज़ा वा कर के रोज़ निकलता था - अम्बर बहराईची कविता - Darsaal

दरवाज़ा वा कर के रोज़ निकलता था

दरवाज़ा वा कर के रोज़ निकलता था

सिर्फ़ वही अपने घर का सरमाया था

खड़े हुए थे पेड़ जड़ों से कट कर भी

तेज़ हवा का झोंका आने वाला था

उसी नदी में उस के बच्चे डूब गए

उसी नदी का पानी उस का पीना था

सब्ज़ क़बाएँ रोज़ लुटाता था लेकिन

ख़ुद उस के तन पर बोसीदा कपड़ा था

बाहर सारे मैदाँ जीत चुका था वो

घर लौटा तो पल भर में ही टूटा था

बुत की क़ीमत आँक रहा था वैसे वो

मंदिर में तो पूजा करने आया था

चीख़ पड़ीं सारी दीवारें 'अम्बर'-जी

मैं सब से छुप कर कमरे में बैठा था

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