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बुरीदा बाज़ुओं में वो परिंद लाला-बार था - अम्बर बहराईची कविता - Darsaal

बुरीदा बाज़ुओं में वो परिंद लाला-बार था

बुरीदा बाज़ुओं में वो परिंद लाला-बार था

शिकारियों के ग़ोल में अजीब इंतिशार था

हरे फलों को तोड़ती हुई हवा गुज़र गई

बुझी बुझी फ़ज़ा में हर दरख़्त सोगवार था

सफ़र का आख़िरी पड़ाव आ गया था और मैं

जो हम-सफ़र बिछड़ रहे थे उन पे अश्क-बार था

गए थे हम भी बहर की तहों में झूमते हुए

हर एक सीप के लबों में सिर्फ़ रेगज़ार था

धुली धुली फ़ज़ा में हो गई अबस वो जुस्तुजू

कि मंज़र-ए-नज़र-नवाज़ तो पस-ए-ग़ुबार था

दम-ए-सहर न जाने जाने कौन आ गया उसे

रवाँ थे अश्क अँखड़ियों से हाथ में सितार था

जो वक़्त आ गया तमाम तीर टूटते गए

उसी नई कमाँ पे तो मुझे भी ए'तिबार था

बरस रही थी आग इस दयार-ए-संग में मगर

मिरे लहू में गुल-फ़िशाँ वो चम्पई अज़ार था

अजीब थी सरिश्त भी हमारे धान पान की

कभी तो बहर-ए-बे-कराँ कभी सराब-ज़ार था

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