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अब क़बीले की रिवायत है बिखरने वाली - अम्बर बहराईची कविता - Darsaal

अब क़बीले की रिवायत है बिखरने वाली

अब क़बीले की रिवायत है बिखरने वाली

हर नज़र ख़ुद में कोई शहर है भरने वाली

ख़ुश-गुमानी ये हुई सूख गया जब दरिया

रेत से अब मिरी कश्ती है उभरने वाली

ख़ुशबुओं के नए झोंके हैं हर इक धड़कन में

कौन सी रुत है मिरे दिल में ठहरने वाली

कुछ परिंदे हैं मगन मौसमी परवाजों में

एक आँधी है पर-ओ-बाल कतरने वाली

हम भी अब सीख गए सब्ज़ पसीने की ज़बाँ

संग-ज़ारों की जबीनें हैं सँवरने वाली

तेज़ धुन पर थे सभी रक़्स में क्यूँ कर सुनते

चंद लम्हों में बलाएँ थीं उतरने वाली

बस उसी वक़्त कई ज्वाला-मुखी फूट पड़े

मोतियों से मिरी हर नाव थी भरने वाली

ढक लिया चाँद के चेहरे को सियह बादल ने

चाँदनी थी मिरे आँगन में उतरने वाली

दफ़अतन टूट पड़े चंद बगूले 'अम्बर'

ख़ुशबुएँ थीं मिरी बस्ती से गुज़रने वाली

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