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गिर पड़े दाँत हुए मू-ए-सर ऐ यार सफ़ेद - अमानत लखनवी कविता - Darsaal

गिर पड़े दाँत हुए मू-ए-सर ऐ यार सफ़ेद

गिर पड़े दाँत हुए मू-ए-सर ऐ यार सफ़ेद

क्यूँ न हो ख़ौफ़-ए-अजल से ये सियहकार सफ़ेद

दो क़दम फ़र्त-ए-नज़ाकत से नहीं चल सकता

रंग हो जाता है उस का दम-ए-रफ़्तार सफ़ेद

उस मसीहा की जो आँखें हुईं गुलज़ार में सुर्ख़

हो गई ख़ौफ़ से बस नर्गिस-ए-बीमार सफ़ेद

गुल-ए-नसरीं को नहीं जोश चमन में बुलबुल

है नज़ाकत के सबब चेहरा-ए-गुलज़ार सफ़ेद

घर मिरे शब को जो वो रश्क-ए-क़मर आ निकला

हो गए परतव-ए-रुख़ से दर ओ दीवार सफ़ेद

लब ओ दंदाँ के तसव्वुर में जो रोया मैं कभी

अश्क दो-चार बहे सुर्ख़ तो दो-चार सफ़ेद

हुई सरसब्ज़ जो सोहबत में 'अमानत' की ग़ज़ल

रंग दुश्मन का हुआ रश्क से इक बार सफ़ेद

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