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भूला हूँ मैं आलम को सरशार इसे कहते हैं - अमानत लखनवी कविता - Darsaal

भूला हूँ मैं आलम को सरशार इसे कहते हैं

भूला हूँ मैं आलम को सरशार इसे कहते हैं

मस्ती में नहीं ग़ाफ़िल हुश्यार इसे कहते हैं

गेसू इसे कहते हैं रुख़्सार इसे कहते हैं

सुम्बुल इसे कहते हैं गुलज़ार इसे कहते हैं

इक रिश्ता-ए-उल्फ़त में गर्दन है हज़ारों की

तस्बीह इसे कहते हैं ज़ुन्नार इसे कहते हैं

महशर का किया वा'दा याँ शक्ल न दिखलाई

इक़रार इसे कहते हैं इंकार इसे कहते हैं

टकराता हूँ सर अपना क्या क्या दर-ए-जानाँ से

जुम्बिश भी नहीं करती दीवार इसे कहते हैं

दिल ने शब-ए-फ़ुर्क़त में क्या साथ दिया मेरा

मूनिस इसे कहते हैं ग़म-ख़्वार इसे कहते हैं

ख़ामोश 'अमानत' है कुछ उफ़ भी नहीं करता

क्या क्या नहीं ऐ प्यारे अग़्यार इसे कहते हैं

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