ईंट दीवार से जब कोई खिसक जाती है

ईंट दीवार से जब कोई खिसक जाती है

धूप कुछ और मेरे सर पे चमक जाती है

कितने दरवाज़े मुझे बंद नज़र आते हैं

आँख जब उठ के सर-ए-बाम-ए-फ़लक जाती है

मुझ से इस बात पे नाराज़ हैं अरबाब-ए-ख़िरद

बात आई हुई होंटों पे अटक जाती है

मुतमइन हो के कभी साँस न लें अहल-ए-चमन

आग सीनों में हवा पा के भड़क जाती है

जाने क्या बात है अब राह-ए-वफ़ा में अक्सर

ज़िंदगी अपने ही साए से ठिठुक जाती है

इक हमीं आबला-पाई से गिला-मंद नहीं

दोस्तो गर्दिश-ए-हालात भी थक जाती है

अब अँधेरा कभी रस्ते में नहीं आएगा

अब नज़र हद्द-ए-नज़र से परे तक जाती है

मेरे हाथों में वो साग़र है छलकने वाला

ता-ब दीवार-ए-हरम जिस की खनक जाती है

आज उस पैकर-ए-रंगीं से मिला हूँ 'पर्वाज़'

जिस के दामन से फ़ज़ा सारी महक जाती है

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