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क़ौमी तराना - अल्ताफ़ मशहदी कविता - Darsaal

क़ौमी तराना

ऐ मिरे हिन्दोस्ताँ जन्नत-निशाँ

बह रही हैं तेरे सीने पर वो शीतल नद्दियाँ

खेलता है जिन की लहरों पर सुरूरों का जहाँ

झूमता है जिन सुरूरों में शबाब-ए-जावेदाँ

पासबानी जिन की करता है हिमाला सा जवाँ

ऐ मिरे हिन्दोस्ताँ जन्नत-निशाँ

तेरे बाग़ों की लहक से झाँकती है ज़िंदगी

ज़िंदगी वो मौत को भी जिस से हो शर्मिंदगी

जिस से हासिल हो हरीम-ए-रूह को ताबिंदगी

ख़ुल्द-ज़ारों का है तेरे गुल्सितानों पर गुमाँ

ऐ मिरे हिन्दोस्ताँ जन्नत-निशाँ

तेरे पर्बत सीम-ओ-ज़र का गुनगुनाता आबशार

तेरे चश्मे बरबत-नाहीद का ज़र्रीन तार

तेरे जंगल ख़ुल्द के सपने की सुंदर सी बहार

मस्त झोंकों की ज़बाँ पर मध भरी मौसीक़ियाँ

ऐ मिरे हिन्दोस्ताँ जन्नत-निशाँ

तेरी मस्ताना हवाओं में जवानी ज़ौ-फ़गन

ज़र्रे ज़र्रे से नुमायाँ तूर का सा बाँकपन

मुस्कुराती है फ़ज़ाओं में नशीली सी फबन

तेरी वादी में सुरूर-ओ-कैफ़ की नहरें रवाँ

ऐ मिरे हिन्दोस्ताँ जन्नत-निशाँ

बाम-ए-आज़ादी के ख़ुश-अंजाम ज़ीने के लिए

तेरी उल्फ़त के नशीले जाम पीने के लिए

यानी तेरी गोद में आज़ाद जीने के लिए

बिजलियाँ बन कर गिरेंगे ग़ैर पर हम ना-गहाँ

ऐ मिरे हिन्दोस्ताँ जन्नत-निशाँ

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