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कौन उतरा नज़र के ज़ीने से - अल्ताफ़ मशहदी कविता - Darsaal

कौन उतरा नज़र के ज़ीने से

कौन उतरा नज़र के ज़ीने से

महफ़िल-ए-दिल सजी क़रीने से

शैख़-साहिब मुझे अक़ीदत है

गुनगुनाते हुए महीने से

मय को गुल-रंग कर दिया किस ने

ख़ून ले कर कली के सीने से

कोई साहिल न नाख़ुदा अपना

हम तो मानूस हैं सफ़ीने से

किस का एजाज़ है कि रिंदों को

चैन मिलता है आग पीने से

पी के जीते हैं जी के पीते हैं

हम को रग़बत है ऐसे जीने से

मय कि तक़्दीस का जवाब कहाँ

दाग़ धुलते हैं दिल के पीने से

हाए 'अलताफ़' वो उरूस-ए-बहार

झाँकती है जो आबगीने से

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