वो उम्मीद क्या जिस की हो इंतिहा
वो व'अदा नहीं जो वफ़ा हो गया
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हक़ीक़त महरम-ए-असरार से पूछ
मिट्टी का दिया
तौहीद
फ़रिश्ते से बढ़ कर है इंसान बनना
हम ने अव्वल से पढ़ी है ये किताब आख़िर तक
ताज़ीर-ए-जुर्म-ए-इश्क़ है बे-सर्फ़ा मोहतसिब
रिफॉर्म की हद
ग़म-ए-फ़ुर्क़त ही में मरना हो तो दुश्वार नहीं
अब वो अगला सा इल्तिफ़ात नहीं
बुरी और भली सब गुज़र जाएगी
इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद