सदा एक ही रुख़ नहीं नाव चलती
चलो तुम उधर को हवा हो जिधर की
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उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
क्यूँ बढ़ाते हो इख़्तिलात बहुत
दिल से ख़याल-ए-दोस्त भुलाया न जाएगा
कह दो कोई साक़ी से कि हम मरते हैं प्यासे
हक़ीक़त महरम-ए-असरार से पूछ
इश्क़ को तर्क-ए-जुनूँ से क्या ग़रज़
बे-क़रारी थी सब उम्मीद-ए-मुलाक़ात के साथ
सख़्त मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम
है ये तकिया तिरी अताओं पर
बहुत जी ख़ुश हुआ 'हाली' से मिल कर
है जुस्तुजू कि ख़ूब से है ख़ूब-तर कहाँ
कर के बीमार दी दवा तू ने