'हाली' को जो कल फ़सुर्दा-ख़ातिर पाया
पूछा बाइस तो हँस के ये फ़रमाया
रक्खो न अब अगली सोहबतों की उम्मीद
वो वक़्त गए अब और मौसम आया
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मुनाजात-ए-बेवा
धूम थी अपनी पारसाई की
यही है इबादत यही दीन ओ ईमाँ
वस्ल का उस के दिल-ए-ज़ार तमन्नाई है
सुकूत-ए-दरवेश-ए-जाहिल
वो उम्मीद क्या जिस की हो इंतिहा
वाँ अगर जाएँ तो ले कर जाएँ क्या
रंज और रंज भी तन्हाई का
यारान-ए-तेज़-गाम ने महमिल को जा लिया
कुछ हँसी खेल सँभलना ग़म-ए-हिज्राँ में नहीं
कर के बीमार दी दवा तू ने
दिल से ख़याल-ए-दोस्त भुलाया न जाएगा